ज़ेर-ओ-बम से साज़-ए-ख़िलक़त के जहाँ बनता गया
ज़ेर-ओ-बम से साज़-ए-ख़िलक़त के जहाँ बनता गया
ये ज़मीं बनती गई ये आसमाँ बनता गया
दास्तान-ए-जौर-ए-बेहद ख़ून से लिखता रहा
क़तरा क़तरा अश्क-ए-ग़म का बे-कराँ बनता गया
इश्क़-ए-तन्हा से हुईं आबाद कितनी मंज़िलें
इक मुसाफ़िर कारवाँ-दर-कारवाँ बनता गया
मैं तिरे जिस ग़म को अपना जानता था वो भी तो
ज़ेब-ए-उनवान-ए-हदीस-ए-दीगराँ बनता गया
बात निकले बात से जैसे वो था तेरा बयाँ
नाम तेरा दास्ताँ-दर-दास्ताँ बनता गया
हम को है मालूम सब रूदाद-ए-इल्म-ओ-फ़ल्सफ़ा
हाँ हर ईमान-ओ-यक़ीं वहम-ओ-गुमाँ बनता गया
मैं किताब-ए-दिल में अपना हाल-ए-ग़म लिखता रहा
हर वरक़ इक बाब-ए-तारीख़-ए-जहाँ बनता गया
बस उसी की तर्जुमानी है मिरे अशआ'र में
जो सुकूत-ए-राज़ रंगीं दास्ताँ बनता गया
मैं ने सौंपा था तुझे इक काम सारी उम्र में
वो बिगड़ता ही गया ऐ दिल कहाँ बनता गया
वारदात-ए-दिल को दिल ही में जगह देते रहे
हर हिसाब-ए-ग़म हिसाब-ए-दोस्ताँ बनता गया
मेरी घुट्टी में पड़ी थी हो के हल उर्दू ज़बाँ
जो भी मैं कहता गया हुस्न-ए-बयाँ बनता गया
वक़्त के हाथों यहाँ क्या क्या ख़ज़ाने लुट गए
एक तेरा ग़म कि गंज-ए-शाईगाँ बनता गया
सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़'
क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्ताँ बनता गया
स्रोत:

Gul-e-Naghma (Pg. 21)
- लेखक: Firaq Gorakhpuri
-
- संस्करण: 2006
- प्रकाशक: Maktaba Farogh-e-urdu Matia Mahal Jama Masjid Delhi
- प्रकाशन वर्ष: 2006
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.