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ग़ज़ल
कन-अँखियों की निगह गुपती इशारत क़हर चितवन के
जो वूँ देखा तो बर्छी है जो यूँ देखा तो भाला है
नज़ीर अकबराबादी
तंज़-ओ-मज़ाह
मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी
ग़ज़ल
कहते हो वूँ से हो के इधर आओ वूँ चलें
क्या ख़ूब क्यूँ न दौड़ पड़ूँ ऐसे दम के साथ
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
लेक उठ कर जब वो जाता है तो बे-ताबी से मैं
वूँ ही कहता हूँ ''तिरे क़ुर्बान जाऊँ आ, न जा''
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
जूँ चाहिए वूँ दिल की निकालूँगा हवस मैं
जिस दिन वो मुझे कैफ़ में सरशार मिलेगा