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ग़ज़ल
ये बार-ए-ग़म-ए-इश्क़ समाया है कि 'नासिख़'
है कोह से दह-चंद गिरानी मिरे दिल की
इमाम बख़्श नासिख़
रेख़्ती
नए धानों की सी खेती की तरह से 'इंशा'
डह-डही और हरी हूँ तो भला तुझ को क्या