aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "برعکس"
कृष्णा ब्रादर्स, कांगड़ा
पर्काशक
राशिद ब्राद्रस
ल्योनार्ड ब्रूक्स
लेखक
गेराल्डिन ब्रूक्स
फ़्रेन्क ब्रदर्स एण्ड कम्पनी, नोएडा
उनसे कटकर मैं एक दूसरी टोली में जा मिला। यहाँ मरहूम के एक शनासा और मेरे पड़ोसी उनके गिल्र्ड़ लड़के को सब्र-ए-जमील की तल्क़ीन और गोल मोल अलफ़ाज़ में नाएम-उल-बदल की दुआ देते हुए फ़रमा रहे थे कि बर्ख़ुर्दार! ये मरहूम के मरने के दिन नहीं थे। हालाँकि पाँच मिनट पहले यही साहब, जी हाँ, यही साहब मुझसे कह रहे थे कि मरहूम ने पाँच साल क़ब्ल दोनों बीवियों को अपने तीसरे सेहरे की बहारें दिखाई थी और ये उनके मरने के नहीं, डूब मरने के दिन थे।
अलबत्ता वो मुस्कुराया अक्सर करती थी। जब वो मुस्कुराती तो उसके होंट खुल जाते और आँखें भीग जातीं। हाँ तो मैं समझती थी कि आपा चुपकी बैठी ही रहती है। ज़रा नहीं हिलती और बिन चले लुढ़क कर यहाँ से वहाँ पहुँच जाती है जैसे किसी ने उसे धकेल दिया हो। उसके बरअक्स साहिरा कितने मज़े में चलती थी जैसे दादरे की ताल पर नाच रही हो और अपनी ख़ाला ज़ाद बहन साजो बाजी को चलते...
मैंने उससे कुछ न कहा क्योंकि वो गहरे फ़िक्र में ग़र्क़ हो गई थी। शायद वो सोच रही थी कि “इतना ज़रूर” क्या है?थोड़ी देर के बाद उसके पतले होंटों पर वही ख़फ़ीफ़ पुरअसरार मुस्कुराहट नुमूदार हुई जिससे उसके चेहरे की संजीदगी में थोड़ी सी आ’लिमाना शरारत पैदा हो जाती थी। सोफे पर से एक झटके के साथ उठकर उसने कहना शुरू किया, “मैं इतना ज़रूर कह सकती हूँ कि ये मोहब्बत नहीं है और कोई बला हो तो मैं कह नहीं सकती, सादिक़ मैं तुम्हें यक़ीन दिलाती हूँ।”
जमील दराज़ क़द नहीं था मगर अच्छे ख़द्द-ओ-ख़ाल का मालिक था। मेरा मतलब है कि उसे ख़ूबसूरत न कहा जाए तो उसके क़ुबूल सूरत होने में शक-ओ-शुहबा नहीं था। रंग गोरा और सुर्ख़ी माइल, तेज़-तेज़ बातें करने वाला, बला का ज़हीन, इंसानी नफ़सियात का तालिब-ए-इल्म, बड़ा सेहत मंद।उसके दिल-ओ-दिमाग़ में सिन-ए-बुलूग़त तक पहुंचने से कुछ अ’र्सा पहले ही इश्क़ करने की ज़बरदस्त ख़्वाहिश पैदा होगई थी। उसको ग़ालिब के इस शे’र का मफ़हूम अच्छी तरह मालूम था:
तख़्लीक़ी ज़बान तर्सील और बयान की सीधी मंतिक़ के बर-अक्स होती है। इस में कुछ अलामतें है कुछ इस्तिआरे हैं जिन के पीछे वाक़यात, तसव्वुरात और मानी का एक पूरा सिलसिला होता है। सय्याद, नशेमन, क़फ़स जैसी लफ़्ज़ियात इसी क़बील की हैं। शायरी में सय्याद चमन में घात लगा कर बैठने वाला एक शख़्स ही नहीं रह जाता बल्कि उस की किरदारी सिफ़त उस के जैसे तमाम लोग को उस में शरीक कर लेती है। इस तौर पर ऐसी लफ़्ज़ियात का रिश्ता ज़िंदगी की वुसअत से जुड़ जाता है। यहाँ सय्याद पर एक छोटा सा इन्तिख़ाब पढ़िए।
रौशनी और प्रकाश के आंशिक या पूर्ण अभाव को अंधेरा कहा जाता है । अर्थात वो समय या स्थिति जिस में प्रकाश या रौशनी न हो । अंधेरा अपने स्वभाविक अंदाज़ में भी उर्दू शायरी में आया है और जीवन के नकारात्मकता का रूपक बना है । लेकिन ये शायरी में अपने रूपक का विस्तार भी है कि कई जगहों पर यही अंधेरा आधुनिक जीवन की चकाचौंध के सामने सकारात्मक रूप में मौजूद है । अंधेरे को रूपक के तौर पर शायरी ने अपना कर कई नए अर्थ पैदा किए हैं ।
तख़्लीक़ी ज़बान तर्सील और बयान की सीधी मंतिक़ के बर-अक्स होती है। इस में कुछ अलामतें हैं कुछ इस्तिआरे हैं जिन के पीछे वाक़ियात, तसव्वुरात और मानी का पूरा एक सिलसिला होता है। चमन, सय्याद, गुलशन, नशेमन, क़फ़स जैसी लफ़्ज़ियात इसी क़बील की हैं। यहाँ जो शायरी हम-पेश कर रहे हैं वह चमन की उन जहतों को सामने लाती है जो आम तौर से हमारी निगाहों से ओझल होती है।
बर-अक्सبرعکس
on the contrary, in opposition (to), as against
विसदृश, प्रतिकूल, खिलाफ़, प्रत्युत, बरखिलाफ़ ।
Parde Ke Peeche
इस्लामियात
Aks Aur Bar-Aks
सुधा मूर्ती
Aks Bar Aks
शमीम अहमद सिद्दीक़ी
Post Box Number-203 Nala Supara
चित्रा मुद्गल
उपन्यास
Black Box
कश्मीरी लाल ज़ाकिर
नॉवेल / उपन्यास
A Regional Geography of The Americas
Qissa Futooh-ul-Yaman
अबुल्हसन अल-बकरी
इतिहास
मैं उससे पेश्तर कह चुका हूँ कि मंटो अव़्वल दर्जे का फ़राड है। इस का मज़ीद सबूत ये है कि वो अक्सर कहा करता है कि वो अफ़साना नहीं सोचता ख़ुद अफ़साना उसे सोचता है। ये भी एक फ़राड है हालाँकि मैं जानता हूँ कि जब उसे अफ़साना लिखना होता है तो उसकी वही हालत होती है जब किसी मुर्ग़ी को अण्डा देना होता है। लेकिन वो ये अण्डा छुप कर नहीं देता। सबके सामने देता है।...
सारे घर में अगर किसी को काकी से मुहब्बत थी तो वो बुध राम की छोटी लड़की लाडली थी। लाडली अपने दोनों भाइयों के ख़ौफ़ से अपने हिस्से की मिठाई या चबेना बूढ़ी काकी के पास बैठ कर खाया करती थी यही उसका मलजा था और अगरचे काकी की पनाह उनकी मुआनिदाना सरगर्मी के बाइस बहुत गिरां पड़ती थी लेकिन भाइयों के दस्त-ए-ततावुल से बदर जहॉ क़ाबिल-ए-तर्जीह थी इस मुनासिब अग़राज़ ने इ...
अलफ़ाज़ के “नीम जादूई ग़लबे” का इक़रार करते हुए भी उसे इसरार है कि जिस क़ुव्वत के ज़रिए शे’र हमारे ज़ेहनों पर हुक्मरानी करते हैं, वो उन “जज़्बाती तासीरों Influences के बाहम दिगर और ब-यक वक़्त अमल की बिना पर है।” जो उनके इबहाम और ग़ैर क़तईयत ही के ज़रिए बरपा होता है।ऐसा नहीं है कि आहंग शे’री हुस्न का हिस्सा नहीं होता, लेकिन अपने मशीनी ढाँचे के अलावा बक़िया सारा आहंग मअनी का मह्कूम और मर्हूने मिन्नत होता है। इस मशीनी ढाँचे की भी अहमियत है, बल्कि बा’ज़-औक़ात तो मशीनी ढाँचे को ही ज़्यादा अहमियत देनी होती है, जैसा कि मैंने अपने एक मज़मून में ज़ाहिर किया है। मशीनी ढाँचे में तनव्वो बिलआख़िर मअनी में तनव्वो को राह देता है। बहुत से अलफ़ाज़ ऐसे भी हैं जो शे’र में सिर्फ़ इस वजह से नहीं इस्तेमाल होते कि उनका वज़न, शे’र के वज़न में नहीं खपता। ज़ाहिर है कि इस हद तक तो आपका शे’र मअनी से महरूम रह ही गया। इसलिए मुतनव्वे मशीनी ढाँचों के इस्तेमाल के ज़रिए मुतनव्वे अलफ़ाज़ शे’र में दाख़िल होते रहते हैं।
इस आइने ने उसूलों पे ज़िद न की वर्नामैं अपने आप के बर-अक्स होने वाला था
और मेरे साथ ही, मुझसे कछ पहले चारपाई भी खड़ी हो गई।कहने लगी, “क्या बात है? आप कुछ बेक़रार से हैं। मेदे का फे़’ल दुरुस्त नहीं मालूम होता।”
शाम को एक पेड़ के नीचे पंचायत बैठी। टाट बिछा हुआ था। हुक़्क़े का भी इंतिज़ाम था, ये सब शेख़ जुम्मन की मेहमान-नवाज़ी थी। वो ख़ुद अलगू चौधरी के साथ ज़रा दूर बैठे हुक़्क़ा पी रहे थे। जब कोई आता था एक दबी हुई सलाम अलैक से उसका ख़ैर-मक़्दम करते थे। मगर ताज्जुब था कि बा-असर आदमियों में सिर्फ़ वही लोग नज़र आते, जिन्हें उनकी रज़ा जोई की कोई पर्वा नहीं हो सकती थ...
शाह साहब ने चंद लम्हात अपने हाफ़िज़े को फिर टटोला और अपनी दास्तान शुरू की, “मंटो साहब! जैसा कि मैं आपसे पहले अर्ज़ कर चुका हूँ कि मैं काबुल में था। ये कोई दस बरस पहले की बात है जब मेरी सेहत बहुत अच्छी थी। यूं तो मैं अब भी तन-ओ-मंद कहलाता हूँ, मगर उस ज़माने में मेरा जिस्म आज के मुक़ाबले में दोगुना था। “हर रोज़ वरज़िश करता था, सैकड़ों डंड पेलता था, मुगदर घुमाता था। सिगरेट पीता था न शराब, बस एक अच्छा खाने की आदत थी। अफ़ग़ानी नहीं, हिंदुस्तानी। चुनांचे मैं अमृतसर से अपने साथ एक बहुत अच्छा कश्मीरी बावर्ची ले गया था जो हर रोज़ मेरे लिए लज़ीज़ से लज़ीज़ खाने तैयार कर के मेज़ पर रखता था। मेरी ज़िंदगी बड़ी हमवार गुज़रती थी। आमदनी बहुत माक़ूल थी। बैंक में लाखों अफ़ग़ानी रुपये जमा थे... लेकिन...”
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