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ग़ज़ल
जो आप दर से उठा न देते कहीं न करता मैं जब्हा-साई
अगरचे ये सरनविश्त में था तुम्हारे सर की क़सम न होता
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
न आया रहम कुछ भी आह दिल में उस सितमगर के
हमारी जब्हा-साई के असर से आस्ताँ रोया
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
समस्त
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कहानी
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
ग़ज़ल
नहीं मिटती है पत्थर की लकीर अहबाब कहते हैं
रहेगा पा-ए-बुत पर नक़्श अपनी जब्हा-साई का