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नज़्म
ख़ून फिर ख़ून है
ख़ाक-ए-सहरा पे जमे या कफ़-ए-क़ातिल पे जमे
फ़र्क़-ए-इंसाफ़ पे या पा-ए-सलासिल पे जमे
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
तअ'य्युन कर तो लें वो सम्त-ए-मंज़िल
'ज़िया' जो ख़ाक-ए-सहरा छानते हैं
सय्यद मुज़फ़्फ़र आलम ज़िया अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
उड़ाते ही फिरेंगे उम्र भर वो ख़ाक सहरा की
तिरी ज़ुल्फ़ों के साए में जो दीवाने नहीं आते