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नज़्म
शिकवा
वादी-ए-नज्द में वो शोर-ए-सलासिल न रहा
क़ैस दीवाना-ए-नज़्ज़ारा-ए-महमिल न रहा
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
निसार मैं तेरी गलियों के
चमक उठे हैं सलासिल तो हम ने जाना है
कि अब सहर तिरे रुख़ पर बिखर गई होगी
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
ख़ून फिर ख़ून है
ख़ाक-ए-सहरा पे जमे या कफ़-ए-क़ातिल पे जमे
फ़र्क़-ए-इंसाफ़ पे या पा-ए-सलासिल पे जमे
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
जाने किस रंग से आई है गुलिस्ताँ में बहार
कोई नग़्मा ही नहीं शोर-ए-सलासिल के सिवा
अली सरदार जाफ़री
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नज़्म
शिकस्त
रह गया दब के गिराँ-बार सलासिल के तले
मेरी दरमांदा जवानी की उमंगों का ख़रोश
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
सहरा ज़िंदाँ तौक़ सलासिल आतिश ज़हर और दार ओ रसन
क्या क्या हम ने दे रखे हैं आप के एहसानात के नाम
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद
नज़्म
आलम कितने
अभी गूंजेंगे सलासिल की सदाएँ कितनी
और होंगे अभी ज़ंजीर से मातम कितने
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
अँधेरी रात का मुसाफ़िर
सलासिल ताज़ियाने बेड़ियाँ फाँसी के तख़्ते हैं
मगर मैं अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ता ही जाता हूँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
दो तीन झटके दूँ जूँ ही वहशत के ज़ोर में
ज़िंदाँ में टुकड़े होवें सलासिल के चार पाँच
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
ये ज़ुल्फ़ ख़म-ब-ख़म न हो क्या ताब-ए-ग़ैर है
तेरे जुनूँ-ज़दे की सलासिल को थामना