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नज़्म
नज़्र-ए-वतन
फिर सर-ज़मीं वतन की है नज़रों के सामने
फिर लब पे एक नारा-ए-मस्ताना चाहिए
अख़्तर शीरानी
ग़ज़ल
ये तन्हाई का आलम चाँद तारों की ये ख़ामोशी
'हफ़ीज़' अब लुत्फ़ है इक नारा-ए-मस्ताना हो जाए
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
जुनूँ ही से मगर बिल्कुल दिल-ए-दीवाना ख़ाली है
न मानूँगा असर से ना'रा-ए-मस्ताना ख़ाली है