aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "کیمسٹری"
शैलेन्द्र
1923 - 1966
शायर
वेन्स केसरी
लेखक
मेडीनोवा केमिस्ट, नई दिल्ली
पर्काशक
केसरी नाराण शुक्ल
शंकर कैमोरी
केसरी दास सेठ
केसरी किशोर
d.1979
तक़सीम के बा'द वक़ार साहिब ब-क़ौल शख़्से लुट-लुटा कर लाहौर आन पहुँचे थे और माल रोड के पिछवाड़े एक फ़्लैट अलाट करवा कर उसमें अपना स्कूल खोल लिया था। शुरू’-शुरू’ में कारोबार मंदा रहा। दिलों पर मुर्दनी छाई थी। नाचने गाने का किसे होश था। उस फ़्लैट में तक़सीम से पहले आर्य समाजी हिंदुओं का म्यूज़िक स्कूल था। लकड़ी के फ़र्श का हाल, पहलू में दो छोटे कमरे, ग़ुस्ल...
बाक़ी सारा वक़्त तो सरताज का अमल-दख़ल रहता था लेकिन प्रोफ़ेसर समदानी की क्लास में वो छछूंदर की तरह छुपती फिरती। उर्दू की क्लास में उसके कानों की लवें सुर्ख़ क़ुमक़ुमे की तरह जल उठतीं। सब्ज़ा रंग आँखों पर बादल छा जाते। दूधिया रंगत कभी सरसों की तरह फूल उठती कभी शंगरफ़ी हो जाती। समदानी साहब को भी जाने क्या कद थी कि हर मुश्किल लफ़्ज़ उसी से पूछते। हर शे’र क...
“वाक़ई?”हम-सफ़र ने अपना नाम बताया। दक़तूर शरीफ़यान। तबरेज़ यूनीवर्सिटी। शो’बा-ए-तारीख़। कार्ड दिया। उस पर नाम के बहुत से नीले हुरूफ़ छपे थे। लड़की ने बशाशत से दरियाफ़्त किया, “एन.आई.क्यू. या’नी नो आई.क्यू?”
फिर ये आवाज़ें भीगी रात की हवाओं के साथ नाचती हुई बहुत दूर हो गईं। मैंने सोने की कोशिश की। मेरी आँखों के आगे ख़्वाब का धुँदलका फैलता चला गया। सर्व के दरख़्तों के पीछे से चांद आहिस्ता-आहिस्ता तुलूअ’ हो रहा था। वो बिल्कुल मा’मूली और हमेशा की सी ज़रा सुनहरी रात थी। हम उसी रोज़ 18, वारिस रोड से शिफ़्ट कर के इस लेन वाली कोठी में आए थे। उस रात हम अपने कमरे सजाने और सामान ठीक करने के बाद थक और उकता कर खाने के इंतिज़ार में ड्राइंगरूम के फ़र्श पर लोट लगा रहे थे। उ’स्मान एक नया रिकार्ड ख़रीद कर लाया था और उसे पच्चीसवीं मर्तबा बजा रहा था। मुझे अब तक याद है कि वो मलिका पुखराज का रिकार्ड था,
मुझे कुछ हो गया। न सिर्फ़ ये कि मैं बार बार ख़ुद को आइने में देखने लगी बल्कि डरने भी लगी। बच्चे बुरी तरह मेरे पीछे पड़े हुए थे और मैं पकड़े जाने के ख़ौफ़ में काँप रही थी। घर में मेरे रिश्ते की बातें चल रही थीं। रोज़ कोई न कोई देखने को चला आता था, लेकिन मुझे उन में से कोई भी पसंद न था। कोई मरा मर घुला था और कोई तंदरुस्त था भी तो उसने कंवेक्स शीशों वाली ऐ...
कैमिस्ट्रीکیمسٹری
chemistry
Gazal ki Babat
शायरी तन्क़ीद
Aqeedat Ke Phool
नात
Ismail Hakki Buresevi Translation of And Commentry on Fusus Al-Hikam
मुहीउद्दीन इब्ने अरबी
Chemistry
अशरफ़ अली
Shikar Paba Rakab
शिकारी
रिसाला-ए-केमेस्ट्री
अन्य
Essentials of Chemistry
ग्रेटचेन ओ. लुरोसो
Chemistry For IX & X
के. कुमार
The Mahomedan Commentary On The Holy Bible
सय्यद अहमद
धर्म-शास्त्र
Qissa-e-Agar Gul
Hanvaz Sheesha Giraan
“फ़िक्र मत करो”, उसने कहा। पहली लड़की शब-ब-ख़ैर कह कर ग़ाइब हो गई। हम सीढ़ियाँ चढ़ कर बरामदे में पहुँचे। बरामदे के एक कोने में लकड़ी की दीवारें लगा कर एक कमरा सा बना दिया गया था। लड़की सुर्ख़-फूलों वाला दबीज़ पर्दा उठा कर उसमें दाख़िल हुई। मैं उसके पीछे पीछे गई…, “यहाँ मैं रहती हूँ। तुम भी यहीं सो जाओ…”, उसने सूटकेस एक कुर्सी पर रख दिया और अलमारी में स...
न करनी पड़े याद ये हिस्ट्रीन जुग़राफ़िया हो और न कैमिस्ट्री
न तशरीह की लय किसी पर खुली हैन इल्म-ए-तबीई न कैमिस्ट्री है
नए जहान की कैमिस्ट्री समझगए हुए दिनों का ध्यान छोड़ दे
किसी एतिदाल पसंद दाना का क़ौल है, “खेल के वक़्त खेल और काम के वक़्त काम अच्छा।” अगर हम ये कहें कि हमें इस ज़रीं उसूल से सरासर इख़्तिलाफ़ है तो इसको ये मानी न पहनाए जाएं कि ख़ुदा-ना-ख़ासता हम शाम-ओ-सह्र, आठों पहर काम करने के हक़ में हैं। सच पूछिए तो हम अपना शुमार उन नॉर्मल अफ़राद में करते हैं जिनको खेल के वक़्त खेल और काम के वक़्त खेल ही अच्छा लगता है और जब खुल के बातें हो रही हैं तो ये अर्ज़ करने की इजाज़त दीजिए कि फ़िलवाक़े काम ही के वक़्त खेल का सही लुत्फ़ आता है। लिहाज़ा क्रिकेट की मुख़ालिफ़त से ये इस्तिंबात न कीजिए कि हम तफ़रीह के ख़िलाफ़ बिफरे हुए बूढ़ों (ANGAR OLD MEN) का कोई मुत्तहदा महाज़ बनाने चले हैं।
Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi
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