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नज़्म
हर्फ़-ए-आरज़ू
ऐ मिरे ख़्वाबों की मंज़िल ऐ मिरी जान-ए-वफ़ा
तू ने मेरे दिल पे जाने सेहर सा क्या कर दिया
परवाज़ नूरपुरी
ग़ज़ल
कोई आज़ुर्दा करता है सजन अपने को हे ज़ालिम
कि दौलत-ख़्वाह अपना 'मज़हर' अपना 'जान-ए-जाँ' अपना
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
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ग़ज़ल
'जान' फिर कर के किसी रोज़ ये उड़ जाएँगी
बेटियाँ बाप के आँगन में हैं चिड़ियों की तरह
जान काश्मीरी
नज़्म
फ़र्ज़ करो
फ़र्ज़ करो हम अहल-ए-वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूटी हों अफ़्साने हों
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
जान-ए-मुज़्तर को न हो क्यूँ दिल-ए-बेताब से हज़
होता अहबाब को है सोहबत-ए-अहबाब से हज़