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ग़ज़ल
संग-ए-जफ़ा का ग़म नहीं दस्त-ए-तलब का डर नहीं
अपना है उस पर आशियाँ नख़्ल जो बारवर नहीं
नज़्म तबातबाई
ग़ज़ल
क़फ़स में फैलाएगा ये पर तो ख़ला में दस्त-ए-तलब बनेगा
और एक दिन फिर यही परिंदा रिहाइयों का सबब बनेगा
शाहनवाज़ अंसारी
शेर
सलीम कौसर
ग़ज़ल
फ़ना के बाद ही मिलती है ज़िंदगी को दवा
'तलब' ये रम्ज़ तुम्हारी समझ में आता है क्या