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नज़्म
तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त
जो भी धारा था उन्हीं के लिए वो बेकल था
प्यार अपना भी तो गँगा की तरह निर्मल था
राजेन्द्र नाथ रहबर
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ग़ज़ल
अगर 'सय्यद' मिरे लब पर मोहब्बत ही मोहब्बत है
तो फिर भी किस लिए नफ़रत का धारा साथ रहता है
वसी शाह
नज़्म
जिस्म के उस पार
तुम्हारी हर तान तीरगी की सियाह धारा बनी हुई है
कोई किरन इस से फूट पाए भला ये क्यूँ हो
मीराजी
नज़्म
आज़ादी-ए-वतन
जलाना छोड़ दें दोज़ख़ के अंगारे ये मुमकिन है
रवानी तर्क कर दें बर्क़ के धारे ये मुमकिन है
मख़दूम मुहिउद्दीन
ग़ज़ल
सच्चाई है अमृत धारा सच्चाई अनमोल सहारा
सच के रस्ते चल के सब ने ठोर ठिकाने पाए हैं