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ग़ज़ल
चारों जानिब मौसम-ए-गुल है पागल यादें तन्हाई
मन सागर में जाग उठी हैं गुज़री रातें तन्हाई
फ़र्रुख़ ज़ोहरा गिलानी
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शेर
साक़ी मय साग़र पैमाना मेरे बस की बात नहीं
सिर्फ़ इन्ही से दिल बहलाना मेरे बस की बात नहीं
कुँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर
ग़ज़ल
दिया जो साक़ी ने साग़र-ए-मय दिखा के आन इक हमें लबालब
अगरचे मय-कश तो हम नए थे प लब पे रखते ही पी गए सब
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
न पूछो साग़र-ओ-मय और मय-ख़ानों पे क्या गुज़री
न हो साक़ी तो ये पूछो कि मस्तानों पे क्या गुज़री