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ग़ज़ल
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
शनासा-ए-रुमूज़-ए-फ़ितरत-ए-ग़म होती जाती है
निशात-ओ-कैफ़ से भी आँख पुर-नम होती जाती है
मुतरिब बलियावी
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ग़ज़ल
बे-जान से भी होते हैं वो महव-ए-गुफ़्तुगू
क्या जाने मुझ से क्यों वो मगर बोलते नहीं
औलाद-ए-रसूल क़ुद्सी
तंज़-ओ-मज़ाह
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
ज़ब्त इतना कि चराग़ों से हुए महव-ए-कलाम
याद इतनी कि तुझे दिल से उतरने न दिया