aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "लश्कर-ए-ग़म"
तन्हा न दिल ही लश्कर-ए-ग़म देख टल गयाइस मा'रके में पा-ए-तहम्मुल भी चल गया
चराग़-ए-हस्ती-ए-ग़म जल रहा हैअभी तक रौशनी मद्धम नहीं है
किसी के भूल जाने से मोहब्बत कम नहीं होतीमोहब्बत ग़म तो देती है शरीक-ए-ग़म नहीं होती
जिस ख़ाक-ए-पा की खोज में तू थक गया है 'ग़म'मिलना है एक दिन इसी गर्द-ओ-ग़ुबार में
मुक़द्दर को तिरे मंज़ूर कुछ 'ग़म' है तो ये ही हैकि तुझ सा इस ज़माने में कोई बे-दिल नहीं मिलता
नशा पर शायरी मौज़ूआती तौर पर बहुत मुतनव्वे है। इस में नशा की हालत के तजुर्बात और कैफ़ियतों का बयान भी है और नशा को लेकर ज़ाहिद-ओ-नासेह से रिवायती छेड़-छाड़ भी। इस शायरी में मय-कशों के लिए भी कई दिल-चस्प पहलू हैं। हमारे इस इन्तिख़ाब को पढ़िए और उठाइए। आगरा शहरों को मौज़ू बना कर शायरों ने बहुत से शेर कहे हैं, तवील नज़्में भी लिखी हैं और शेर भी। इस शायरी की ख़ास बात ये है कि इस में शहरों की आम चलती फिर्ती ज़िंदगी और ज़ाहिरी चहल पहल से परे कहीं अंदरून में छुपी हुई वो कहानियाँ क़ैद हो गई हैं जो आम तौर पर नज़र नहीं आतीं और शहर बिलकुल एक नई आब ताब के साथ नज़र आने लगते हैं। आगरा पर ये शेरी इन्तिख़ाब आपको यक़ीनन इस आगरा से मुतआरिफ़ कराएगा जो वक़्त की गर्द में कहीं खो गया है।
लश्कर-ए-ग़मلشکر غم
army of sorrows
अरे 'ग़म' लग़्ज़िश-ए-सोज़-ए-जिगर का कैफ़ क्या कहिएज़बाँ मजबूर हो जाती है जब दिल में उतरती है
लश्कर-ए-ग़म से जीतने के लिएचंद-रोज़ा ख़ुशी ही काफ़ी है
लश्कर-ए-ग़म की किश्वर-ए-दिल पररात दिन अब चढ़ाई होती है
लश्कर-ए-ग़म ने दिल सीं कूच कियाजब से इस में मक़ाम है तेरा
शाम-ए-ग़म की सहर नहीं होतीया हमीं को ख़बर नहीं होती
दिल ही ख़स्ता न हुआ लश्कर-ए-ग़म के हाथोंबल्कि इस मा'रके में काम दुआ भी आई
"डॉक्टर! तुम मुझे यादों के घने जंगल में छोड़ गए हो। जहाँ तुम्हारी हर बात, हर क़हक़हा एक मुस्तक़िल गूँज बन कर फैल गया हो। और मैं इस जंगल में तन्हा फिर रही हूँ... तुम्हारे बग़ैर ज़िंदगी के लम्हात पज़मुर्दा पत्तियों की मानिंद दरख़्तों से रुक-रुक कर गिर रहे हैं......
राजदा ने कहा था मेरे मुतअल्लिक़ अफ़साना मत लिखना। मैं बदनाम हो जाऊँगी। इस बात को आज तीसरा साल है और मैंने राजदा के बारे में कुछ नहीं लिखा और न ही कभी लिखूँगा। अगरचे वो ज़माना जो मैंने उसकी मोहब्बत में बसर किया, मेरी ज़िंदगी का सुनहरी ज़माना था...
शब-ए-ग़म की हज़ीं तन्हाइयों मेंसुकून-ए-दिल कोई लाए कहाँ से
बे-बुलाए मिरे घर वो शह-ए-ख़ूबाँ आयालश्कर-ए-ग़म पे हुई मुझ को ज़फ़र आज की रात
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