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ग़ज़ल
शुग़्ल-ए-मय-परस्ती गो जश्न-ए-ना-मुरादी था
यूँ भी कट गए कुछ दिन तेरे सोगवारों के
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन
वर्ना हम छेड़ेंगे रख कर उज़्र-ए-मस्ती एक दिन
मिर्ज़ा ग़ालिब
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ग़ज़ल
ये साक़ी की करामत है कि फ़ैज़-ए-मय-परस्ती है
घटा के भेस में मय-ख़ाने पर रहमत बरसती है
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
मजलिस-ए-वाज़ में क्या मेरी ज़रूरत नासेह
घर में बैठा हुआ शुग़ल-ए-मय-ओ-मीना न करूँ