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ग़ज़ल
तुझ को क्या फ़क़्र में राहत है कि शाही में फ़राग़
तू तो है ख़ल्वती-ए-पीर-ए-ख़राबात ऐ 'जोश'
जोश मलीहाबादी
नज़्म
हम लोग
ख़ाकसारान-ए-दर-ए-पीर-ए-मुग़ाँ हैं हम लोग
या'नी मिनजुमला-ए-साहिब-नज़राँ हैं हम लोग
अली मीनाई
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शेर
क़द्र मुझ रिंद की तुझ को नहीं ऐ पीर-ए-मुग़ाँ
तौबा कर लूँ तो कभी मय-कदा आबाद न हो
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
हम जो मस्जिद से दर-ए-पीर-ए-मुग़ाँ तक पहुँचे
बढ़ के ये बात ख़ुदा जाने कहाँ तक पहुँचे
साहिर सियालकोटी
ग़ज़ल
रिंदों में यूँ ही बख़्शिश-ए-पीर-ए-मुग़ाँ रहे
हो लाख क़हत फिर भी ये दरिया रवाँ रहे