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ग़ज़ल
हुजूम-ए-यास में भी ज़िंदगी पर मुस्कुराता हूँ
मुसीबत में भी मेरी ख़ंदा-पेशानी नहीं जाती
मख़मूर देहलवी
ग़ज़ल
हँसते चेहरों से दिलों के ज़ख़्म पहचानेगा कौन
तुझ से बढ़ कर ज़ुल्म अपनी ख़ंदा-पेशानी करे
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
वो ऐसी ख़ंदा-पेशानी से हर मारूज़ा सुनते हैं
ये समझे अर्ज़ करने वाला अब मंज़ूर होता है
सफ़ी औरंगाबादी
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नज़्म
तशन्नुज
मुस्कुराहट: इक लिपस्टिक ख़ंदा-पेशानी नक़ाब
रूह: बुर्क़ा-पोश: आँखें बे-हिजाब!
अमीक़ हनफ़ी
ग़ज़ल
बे-तहाशा वो तो मिलता है मोहब्बत से मगर
कुछ परेशानी भी है और ख़ंदा-पेशानी भी है
रम्ज़ अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
हमारे दोस्तों के दिल का आलम दोस्त ही जानें
ब-ज़ाहिर तो बहुत ही ख़ंदा-पेशानी से मिलते हैं
तुफ़ैल होशियारपुरी
ग़ज़ल
था वो मेरे ख़ैर-मक़्दम को ब-ज़ाहिर पेश पेश
अक्स-ए-दीगर लेकिन उस की ख़ंदा-पेशानी में था
नो बहार साबिर
ग़ज़ल
शादमानी बाइस-ए-तकलीफ़ है मेरे लिए
ख़ंदा-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर है ख़ंदा-पेशानी मिरी