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नज़्म
शिकवा
क्यूँ ज़ियाँ-कार बनूँ सूद-फ़रामोश रहूँ
फ़िक्र-ए-फ़र्दा न करूँ महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
निगह रख दी ज़बाँ रख दी मताअ'-ए-क़ल्ब-ओ-जाँ रख दी
मिटा कर अपनी हस्ती पेश-ए-संग-ए-आस्ताँ रख दी
नईम हामिद अली
मर्सिया
अर्श के नूरी ज़मीं के फ़र्श पर आने को हैं
और इक ख़ाकी को सैर-ए-ख़ुल्द दिखलाने को हैं
ख़ुशी मोहम्मद नाज़िर
नज़्म
तस्वीर-ए-दर्द
नहीं मिन्नत-कश-ए-ताब-ए-शुनीदन दास्ताँ मेरी
ख़मोशी गुफ़्तुगू है बे-ज़बानी है ज़बाँ मेरी
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
अव्वलन उस बे-निशाँ और बा-निशाँ को इश्क़ है
ब'अद-अज़ाँ सर हल्क़ा-ए-पैग़मबराँ को इश्क़ है
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
अपनी मल्का-ए-सुख़न से
ऐ शम-ए-'जोश' ओ मशअ'ल-ए-ऐवान-ए-आरज़ू
ऐ मेहर-ए-नाज़ ओ माह-ए-शबिस्तान-ए-आरज़ू