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ग़ज़ल
मैं तो बर्ज़ख़ के अँधेरों में जलाऊँगा चराग़
मैं नहीं वो कि जो मौत आई तो मर जाऊँगा
प्रीतपाल सिंह बेताब
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ग़ज़ल
उश्शाक़ जो तसव्वुर-ए-बर्ज़ख़ के हो गए
आती है दम-ब-दम ये उन्हीं को सदा-ए-क़ल्ब
पंडित जवाहर नाथ साक़ी
शेर
ये कैसा क़ाफ़िला है जिस में सारे लोग तन्हा हैं
ये किस बर्ज़ख़ में हैं हम सब तुम्हें भी सोचना होगा
हिमायत अली शाएर
नज़्म
आलम-ए-बर्ज़ख़
ये तो बर्ज़ख़ है यहाँ वक़्त की ईजाद कहाँ
इक बरस था कि महीना हमें अब याद कहाँ
फ़हमीदा रियाज़
नज़्म
तेरा और मेरा साथ
तेरा और मेरा साथ आलम-ए-बर्ज़ख़ से है
आलम-ए-बर्ज़ख़ या'नी जहाँ अर्वाह इक साथ थीं
जीफ़ ज़िया
ग़ज़ल
ये कैसा क़ाफ़िला है जिस में सारे लोग तन्हा हैं
ये किस बर्ज़ख़ में हैं हम सब तुम्हें भी सोचना होगा
हिमायत अली शाएर
नज़्म
हम को मा'लूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
उस में आती तो नज़र है मुझे अपनी झलक
मैं हूँ दोज़ख़ में या बर्ज़ख़ में