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नज़्म
जवाब-ए-शिकवा
बुत-शिकन उठ गए बाक़ी जो रहे बुत-गर हैं
था ब्राहीम पिदर और पिसर आज़र हैं
अल्लामा इक़बाल
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शेर
ज़ाहिद मिरी समझ में तो दोनों गुनाह हैं
तू बुत-शिकन हुआ जो मैं तौबा-शिकन हुआ
सरदार गेंडा सिंह मशरिक़ी
ग़ज़ल
नज़र से था शरर-ए-संग की तरह जो निहाँ
वो बुत मिला मुझे इक बुत-शिकन के पर्दे में
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
यूँ तराशे हैं सनम कुफ़्र के इस दुनिया ने
बुत-शिकन होता जो इस दौर में 'आज़र' होता
हैदर अली जाफ़री
ग़ज़ल
बुतों का साथ दिया बुत-शिकन का साथ दिया
फ़रेब-ए-इश्क़ ने हर हुस्न-ए-ज़न का साथ दिया
वफ़ा मलिकपुरी
ग़ज़ल
आया तो दिल में बैठ गया बन के देवता
उट्ठे नहीं हैं 'इश्क़-ए-दिल-ए-बुत-शिकन के पाँव