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ग़ज़ल
ग़रज़ रहबर से क्या मुझ को गिला है जज़्ब-ए-कामिल से
कि जितना बढ़ रहा हूँ हट रहा हूँ दूर मंज़िल से
जगत मोहन लाल रवाँ
ग़ज़ल
तू नहीं पर तिरा जल्वा तो है मेरे दिल में
फिर मुझे दूर भला क्यों मह-ए-कामिल समझा
अब्दुल मजीद ख़्वाजा शैदा
ग़ज़ल
तेरी सूरत से मैं दूँ क्या मह-ए-कामिल को मिसाल
उस से सौ दर्जा तिरा हुस्न-ओ-जमाल अच्छा है
रंज हैदराबादी
नज़्म
तामीर-ए-नौ
तहों में डूब के उभरी है फ़िक्र-ए-इंसानी
निकल रहा है सियाही से आफ़्ताब-ए-कमाल
सहबा लखनवी
ग़ज़ल
निय्यत-ए-सादिक़ सलामत जज़्बा-ए-कामिल ब-ख़ैर
दूर है कब तुम से मंज़िल कब हो तुम मंज़िल से दूर
शिफ़ा ग्वालियारी
ग़ज़ल
दिल 'फ़ज़ा' का बुझ गया अंधेर दुनिया हो गई
हो गया जिस रोज़ से वो उस मह-ए-कामिल से दूर
हैदर हुसैन फ़िज़ा लखनवी
ग़ज़ल
आश्ना जब तक न थे इस जल्वा-ए-कामिल से हम
हक़ से कोसों दूर थे नज़दीक थे बातिल से हम