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ग़ज़ल
सुर्ख़ चश्म इतनी कहीं होती है बेदारी से
लहू उतरा है तिरी आँखों में ख़ूँ-ख़्वारी से
नवाब मोहम्मद यार ख़ाँ अमीर
ग़ज़ल
मा'लूम नहीं कौन सी बस्ती के मकीं थे
कुछ लोग मिरी सोच से भी बढ़ के हसीं थे
मोहम्मद मुस्तहसन जामी
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ग़ज़ल
कहाँ नसीब ज़मुर्रद को सुर्ख़-रूई ये
समझ में लाल की अब तक हिना नहीं आई
सययद मोहम्म्द अब्दुल ग़फ़ूर शहबाज़
ग़ज़ल
क्यूँ न हम याद किसी को सहर-ओ-शाम करें
हो न इतना भी मोहब्बत में तो क्या काम करें
रहमत इलाही बर्क़ आज़मी
नज़्म
याद-ए-अलीगढ़
वो चाय की प्याली पे यारों के जलसे
वो सर्दी की रातें वो ज़ुल्फ़ों के क़िस्से