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ग़ज़ल
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
ग़म कि था हरीफ़-ए-जाँ अब हरीफ़-ए-जानाँ है
अब वो ज़ुल्फ़-ए-बरहम है अब वो चश्म-ए-गिर्यां है
राज़ मुरादाबादी
ग़ज़ल
ग़म कि था हरीफ़-ए-जाँ अब हरीफ़-ए-जानाँ है
अब वो ज़ुल्फ़ बरहम है अब वो चश्म गिर्यां है
राज़ मुरादाबादी
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ग़ज़ल
कोई आज़ुर्दा करता है सजन अपने को हे ज़ालिम
कि दौलत-ख़्वाह अपना 'मज़हर' अपना 'जान-ए-जाँ' अपना
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
ग़ज़ल
वो मेरे वास्ते अब जान देने पर है आमादा
वही 'जावेद' जो मेरा हरीफ़-ए-जान था पहले