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नज़्म
शिकवा
नाले बुलबुल के सुनूँ और हमा-तन गोश रहूँ
हम-नवा मैं भी कोई गुल हूँ कि ख़ामोश रहूँ
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
जवाब-ए-शिकवा
कुछ जो समझा मिरे शिकवे को तो रिज़वाँ समझा
मुझ को जन्नत से निकाला हुआ इंसाँ समझा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
क्या सबब तू जो बिगड़ता है 'ज़फ़र' से हर बार
ख़ू तिरी हूर-शमाइल कभी ऐसी तो न थी
बहादुर शाह ज़फ़र
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