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ग़ज़ल
ख़ुद अपना क़फ़स बन गई कोताही-ए-परवाज़
कुछ दूर नहीं वर्ना जहान-ए-मह-ओ-ख़ुर्शीद
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ
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शेर
यही महर ओ माह ओ अंजुम को गिला है मुझ से या-रब
कि उन्हें भी चैन मिलता जो मुझे क़रार होता
अदीब सहारनपुरी
ग़ज़ल
ऐ मह-ए-हिज्र क्या कहें कैसी थकन सफ़र में थी
रूप जो रहगुज़र में थे धूप जो रहगुज़र में थी
नजीब अहमद
ग़ज़ल
कम-निगाही होर तग़ाफ़ुल मत कर ऐ माह-ए-तमाम
मुक तिरा करता है ग़म्ज़ा काम आशिक़ का तमाम
क़ुर्बी वेलोरी
ग़ज़ल
किस जगह जल्वा नहीं ऐ मह-ए-ताबाँ तेरा
पा ही जाता है तुझे हर कहीं ख़्वाहाँ तेरा