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नज़्म
इंतिज़ार
कागा के काएँ काएँ से दिल को तो आस भी हुई
पी जो कहा पपीहे ने दिल की मिरे ख़लिश बढ़ी
फ़ज़ल हक़ अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
किसी की आमद-ए-ख़ुश-कुन का मुज़्दा कौन देता है
बनेरे बोलता कागा न अब वो ख़ुश-ख़बर पंछी
अकरम कुंजाही
ग़ज़ल
कहा मैं ने बात वो कोठे की मिरे दिल से साफ़ उतर गई
तो कहा कि जाने मिरी बला तुम्हें याद हो कि न याद हो