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ग़ज़ल
मैं 'काविश'-ए-ला-हर्फ़-ए-तकल्लुम से हूँ नादिम
वो जिस को कि माज़ी का कोई ग़म भी नहीं है
इम्तियाज़ काविश
ग़ज़ल
उठ कर जो गया उस का कहते हैं जहाँ वाले
वो ‘काविश’-ए-बिस्मिल था इक रौनक़-ए-महफ़िल था
इम्तियाज़ काविश
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ग़ज़ल
ये पर्दा ही है बाइ'स-ए-हिज्राँ दिल-ए-'काविश'
ये पर्दा नशेमन से हटा क्यों नहीं देते
इम्तियाज़ काविश
ग़ज़ल
'काविश' अना की क़ैद के दीवार-ओ-दर गिरने को हैं
इक आलम-ए-असग़र में है इक आलम-ए-अकबर मिरा
काविश बद्री
ग़ज़ल
इक बर्ग-ए-तमन्ना थी सो जल उट्ठी है 'काविश'
इक वादा-ए-दिल था सो नज़र आया शिकन में
इम्तियाज़ काविश
ग़ज़ल
तुम कहो कैसे रक़म कोई सुख़न हो 'काविश'
बाग़-ए-दिल जब कि बहारों में ख़िज़ाँ पूछता है
इम्तियाज़ काविश
ग़ज़ल
'इश्क़ इक आग-ए-सियह-रेज़ है इस में 'काविश'
दम-ब-दम खिल के मुझे ख़ुद को कँवल लिखना है