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ग़ज़ल
सुरूर दिल में न आँखों में ख़्वाब बाक़ी है
शब-ए-फ़िराक़ फ़क़त इज़्तिराब बाक़ी है
फ़ज़ल हुसैन साबिर
शेर
आल-ए-अहमद सुरूर
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ग़ज़ल
तू पयम्बर सही ये मो'जिज़ा काफ़ी तो नहीं
शाइ'री ज़ीस्त के ज़ख़्मों की तलाफ़ी तो नहीं
आल-ए-अहमद सुरूर
रेख़्ती
आल-ए-अहमद के सना-ख़्वान हैं 'मोहसिन' बाजी
क्यूँ पस-ए-मर्ग मो'अत्तर न हो मदफ़न उन का
मोहसिन ख़ान मोहसिन
ग़ज़ल
आज से पहले तिरे मस्तों की ये ख़्वारी न थी
मय बड़ी इफ़रात से थी फिर भी सरशारी न थी
आल-ए-अहमद सुरूर
नज़्म
ऐ दिल-ए-बेताब ठहर
तीरगी है कि उमंडती ही चली आती है
शब की रग रग से लहू फूट रहा हो जैसे