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नज़्म
सुब्ह-ए-आज़ादी (अगस्त-47)
पुकारती रहीं बाहें बदन बुलाते रहे
बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख़-ए-सहर की लगन
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
दो इश्क़
चाहा है इसी रँग में लैला-ए-वतन को
तड़पा है इसी तौर से दिल उस की लगन में
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
समस्त
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नज़्म
हमेशा देर कर देता हूँ
हमेशा देर कर देता हूँ मैं
बदलते मौसमों की सैर में दिल को लगाना हो
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव
रखता है ज़िद से खींच के बाहर लगन के पाँव
मिर्ज़ा ग़ालिब
नज़्म
अन-कही
जाने क्यूँ तुझ से दिल-ए-ज़ार को इतनी है लगन
कैसी कैसी न तमन्नाओं की तम्हीद है तू