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शेर
जिस्म ऐसा घुल गया है मुझ मरीज़-ए-इश्क़ का
देख कर कहते हैं सब तावीज़ है बाज़ू नहीं
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
मरना मरीज़-ए-इश्क़ के हक़ में शिफ़ा हुआ
अच्छा हुआ नजात मिली क्या बुरा हुआ
पंडित जगमोहन नाथ रैना शौक़
ग़ज़ल
मरीज़-ए-इश्क़ की जुज़-मर्ग दुनिया में दवा क्यूँ हो
अगर जाँ हो अज़ीज़ अपनी तो जानाँ पर फ़िदा क्यूँ हो
हकीम मोहम्मद अजमल ख़ाँ शैदा
ग़ज़ल
मरीज़-ए-इश्क़ को है दर्द-ए-दिल दवा के लिए
रही ग़िज़ा सो है ख़ून-ए-जिगर ग़िज़ा के लिए
हकीम आग़ा जान ऐश
ग़ज़ल
उमीदें हो चुकी थीं ख़त्म यकसर ज़िंदगानी की
तुम आए तो मरीज़-ए-इश्क़ के चेहरे पे नूर आया