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ग़ज़ल
हम हैं इंसान इस लिए लाज़िम है कि मुसलसल काम करें
कोई ख़ुदा तो नहीं हैं हम जो सातवें दिन आराम करें
फ़रहत एहसास
ग़ज़ल
शाद अज़ीमाबादी
नज़्म
दिल्ली
वैदिक हों बोध जैन कि अहल-ए-जुनून हूँ
क़ौम-ए-अरब के हों कि मुसलमाँ के ख़ून हों
गुलज़ार देहलवी
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नज़्म
नुक्ता-फ़रसाई
क्या कहूँ क्या गुल खिलाए हैं अबुल-बरकात ने
फ़ित्ना-आराई मुसलमानों में उस का काम है
शोरिश काश्मीरी
ग़ज़ल
इज़्ज़त भी है दौलत भी पर आदमियत का नाम नहीं
हम किस को हिन्दू कहते हैं हम किस को मुसलमाँ कहते हैं
अब्बास अली ख़ान बेखुद
ग़ज़ल
ज़िंदगी क्या है मुसलसल कश्मकश है ऐ 'सुरूर'
मौत से पहले कोई आराम पा सकता नहीं
सत्यपाल कौशिक सुरूर
ग़ज़ल
ज़िंदगी नाम है इक जोहद-ए-मुसलसल का 'फ़ना'
राह-रौ और भी थक जाता है आराम के बाद