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ग़ज़ल
तिरे मस्लक में क्या इतना भी समझाया नहीं जाता
फ़क़ीरों और दरवेशों से टकराया नहीं जाता
नवाज़ असीमी
नज़्म
बदली का चाँद
ख़ुर्शीद वो देखो डूब गया ज़ुल्मत का निशाँ लहराने लगा
महताब वो हल्के बादल से चाँदी के वरक़ बरसाने लगा
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
कोई हसीन है मुख़्तार-ए-कार-ख़ाना-ए-इश्क़
कि ला-मकाँ ही की चौखट है आस्ताना-ए-इश्क़
अहमद हुसैन माइल
ग़ज़ल
हाल-ए-दिल कुछ जो सर-ए-बज़्म कहा है मैं ने
वो ये समझे हैं कि इल्ज़ाम दिया है मैं ने
सज्जाद बाक़र रिज़वी
नज़्म
कर गए कूच कहाँ
इतनी मुद्दत दिल-ए-आवारा कहाँ था कि तुझे
अपने ही घर के दर-ओ-बाम भुला बैठे हैं
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
अक़ीदे बुझ रहे हैं शम-ए-जाँ गुल होती जाती है
मगर ज़ौक़-ए-जुनूँ की शो'ला-सामानी नहीं जाती