aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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अली जवाद ज़ैदी
1916 - 2004
शायर
मसऊद साहब मेरे उस्ताद थे, मेरे बुज़ुर्गों के दोस्त थे, बा’ज़ अदबी उमूर में रहनुमा थे, फिर भी मैं नहीं कह सकता कि मैं उनको बहुत क़रीब से जानता हूँ। मैं उनसे ज़्यादा उनके भाई आफ़ाक़ को जानता हूँ जिनसे मेरी मुलाक़ात मसऊद साहब ही के ज़रिए से हुई। दर अस्ल मसऊद साहब को बहुत क़रीब से जानना मुश्किल भी था। वो कम आमेज़ होने की हद तक गोशा नशीन थे। वक़्त का काफ़ी हिस्स...
जब छेड़ती हैं उन को गुमनाम आरज़ुएँवो मुझ को देखते हैं मेरी नज़र बचा के
नया मय-कदे में निज़ाम आ गयाउठीं बंदिशें इज़्न-ए-आम आ गया
मिरे हाथ सुलझा ही लेंगे किसी दिनअभी ज़ुल्फ़-ए-हस्ती में ख़म है तो क्या ग़म
नज़्ज़ारा-ए-जमाल की फ़ुर्सत कहाँ मिलीपहली नज़र नज़र की हदों से गुज़र गई
तारीख़-ए-मुशायरा
शायरी तन्क़ीद
Masnavi Nigari
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आलोचना
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भाषा एवं साहित्य
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Tareekh-e-Adab Ki Tadween
इतिहास
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Ham Qabila
Islami Taraqqi Pasandi
A History Of Urdu Literature
Uttar Pradesh Mein Urdu Marsiya Nigari
मर्सिया तन्क़ीद
Ali Jawwad Zaidi
वज़ाहत हुसैन रिज़वी
विनिबंध
मोनिस-ए-शब रफ़ीक़-ए-तन्हाईदर्द-ए-दिल भी किसी से कम तो नहीं
ये दुश्मनी है साक़ी या दोस्ती है साक़ीऔरों को जाम देना मुझ को दिखा दिखा के
ऐश ही ऐश है न सब ग़म हैज़िंदगी इक हसीन संगम है
आँखों में अश्क भर के मुझ से नज़र मिला केनीची निगाह उट्ठी फ़ित्ने नए जगा के
एक तुम्हारी याद ने लाख दिए जलाए हैंआमद-ए-शब के क़ब्ल भी ख़त्म-ए-सहर के बाद भी
दबी आवाज़ में करती थी कल शिकवे ज़मीं मुझ सेकि ज़ुल्म ओ जौर का ये बोझ उठ सकता नहीं मुझ से
गो वसीअ' सहरा में इक हक़ीर ज़र्रा हूँरह-रवी में सरसर हूँ रक़्स में बगूला हूँ
जिन हौसलों से मेरा जुनूँ मुतमइन न थावो हौसले ज़माने के मेयार हो गए
गुफ़्तुगू के ख़त्म हो जाने पर आया ये ख़यालजो ज़बाँ तक आ नहीं पाया वही तो दिल में था
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