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ग़ज़ल
गहरे सुर्ख़ गुलाब का अंधा बुलबुल साँप को क्या देखेगा
पास ही उगती नाग-फनी थी सारे फूल वहीं मिलते हैं
अज़ीज़ हामिद मदनी
ग़ज़ल
मैं ने तो अपने सारे फूल उस के चमन को दे दिए
ख़ुश्बू उड़ी तो इक ज़रा मेरा भी नाम हो गया
फ़रहत एहसास
शेर
गहरे सुर्ख़ गुलाब का अंधा बुलबुल साँप को क्या देखेगा
पास ही उगती नाग-फनी थी सारे फूल वहीं मिलते हैं
अज़ीज़ हामिद मदनी
ग़ज़ल
फूल लगता नहीं हरगिज़ तिरे होंटों की मिसाल
सर्व तुझ क़द के बराबर नहीं लगता मुझ को
नवेद फ़िदा सत्ती
ग़ज़ल
क्या बख़्शेंगे वो अंजुमन-ए-नाज़ को ज़ीनत
जो फूल सर-ए-शाख़ ही मुरझाए हुए हैं