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ग़ज़ल
जल्वा पाबंद-ए-नज़र भी है नज़र-साज़ भी है
पर्दा-ए-राज़ भी है पर्दा-दर-ए-राज़ भी है
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ
ग़ज़ल
नुमू के फ़ैज़ से रंग-ए-चमन निखर सा गया
मगर बहार में दिल शोरिशों से डर सा गया
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ
ग़ज़ल
वो नाज़ुक सा तबस्सुम रह गया वहम-ए-हसीं बन कर
नुमायाँ हो गया ज़ौक़-ए-सितम चीन-ए-जबीं बन कर
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ
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नज़्म
आलम कितने
उफ़ ये शबनम से छलकते हुए फूलों के अयाग़
इस चमन में हैं अभी दीदा-ए-पुर-नम कितने
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
एक तुम ही नहीं दुनिया में जफ़ाकार बहुत
दिल सलामत है तो दिल के लिए आज़ार बहुत
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ
ग़ज़ल
रहगुज़र हो या मुसाफ़िर नींद जिस को आए है
गर्द की मैली सी चादर ओढ़ के सो जाए है