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ग़ज़ल
दो बोल दिल के हैं जो हर इक दिल को छू सकें
ऐ 'अश्क' वर्ना शेर हैं क्या शाइरी है क्या
इब्राहीम अश्क
नज़्म
लब पर नाम किसी का भी हो
बे-तेरे क्या वहशत हम को, तुझ बिन कैसा सब्र ओ सुकूँ
तू ही अपना शहर है जानी तू ही अपना सहरा है
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
दरवाज़ा खुला रखना
दिल दर्द की शिद्दत से ख़ूँ-गश्ता ओ सी-पारा
इस शहर में फिरता है इक वहशी-ओ-आवारा