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ग़ज़ल
बिछ जाती हैं सफ़ें की सफ़ें रन में चार सू
जब इक तरफ़ से करता हूँ मैं वार हर तरफ़
ग़ुलाम मुस्तफ़ा फ़राज़
नज़्म
शहर-ज़ादे
इक गहमा-गहमी कू-ब-कू फैली हुई है चार-सू
ईजाद-दर-ईजाद होती ख़्वाहिशें और जुस्तुजू
सलमान सरवत
ग़ज़ल
उठाएँगे न ऐ 'नख़शब' कभी नज़रें सू-ए-जन्नत
तसव्वुर में बहार-ए-कू-ए-जानाँ देखने वाले
नख़्शब जार्चवि
ग़ज़ल
रिंद रस्ते में आँखें बिछाएँ जो कहे बिन सुने मान जाएँ
नासेह-ए-नेक-तीनत किसी शब सू-ए-कू-ए-मलामत तो आए
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
अब तमाशा ही तमाशा है हर इक सू जानाँ
सब बुत-ओ-बुत-गर-ओ-बुत-ज़ाद हैं हम-ख़ू जानाँ