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नज़्म
कातिक का चाँद
सोने लगती है सर-ए-शाम ये सारी दुनिया
इन के हुजरों में न दर है न दरीचा कोई
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
हम इस लम्बे-चौड़े घर में शब को तन्हा होते हैं
देख किसी दिन आ मिल हम से हम को तुझ से काम है चाँद
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
निशान-ए-ज़ख़्म पे निश्तर-ज़नी जो होने लगी
लहू में ज़ुल्मत-ए-शब उँगलियाँ भिगोने लगी
बद्र-ए-आलम ख़लिश
नज़्म
सुब्ह-ए-शब-ए-इंतिज़ार
चराग़ राह में उस के अमल से जलने लगे
लो आज सुब्ह-ए-शब-ए-इंतिज़ार आ ही गई