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शेर
अहल-ए-वफ़ा से तर्क-ए-तअल्लुक़ कर लो पर इक बात कहें
कल तुम इन को याद करोगे कल तुम इन्हें पुकारोगे
इब्न-ए-इंशा
शेर
नहीं तेरा नशेमन क़स्र-ए-सुल्तानी के गुम्बद पर
तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चटानों में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
और नहीं तो तर्क-ए-वफ़ा पर ये भी तो हो सकता है
कुछ हम भी शर्मिंदा होंगे कुछ वो भी पछताएगा
सुलतान सुबहानी
ग़ज़ल
ताक़ ओ मेहराब का रोना हो कि दीवार का ग़म
बाम ओ दर पर जो गुज़रती है मकीं जानते हैं
सुल्तान अख़्तर
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शेर
परेशाँ हो के दिल तर्क-ए-तअल्लुक़ पर है आमादा
मोहब्बत में ये सूरत भी न रास आई तो क्या होगा
उनवान चिश्ती
शेर
दिल पर चोट पड़ी है तब तो आह लबों तक आई है
यूँ ही छन से बोल उठना तो शीशे का दस्तूर नहीं
अंदलीब शादानी
ग़ज़ल
चोरी चोरी हम से तुम आ कर मिले थे जिस जगह
मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है