aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनामवो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजेइक आग का दरिया है और डूब के जाना है
आग थे इब्तिदा-ए-इश्क़ में हमअब जो हैं ख़ाक इंतिहा है ये
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तककौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक
कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगेजाने कैसे लोग वो होंगे जो उस को भाते होंगे
दिल पागल है रोज़ नई नादानी करता हैआग में आग मिलाता है फिर पानी करता है
दिल के फफूले जल उठे सीने के दाग़ सेइस घर को आग लग गई घर के चराग़ से
सदा ऐश दौराँ दिखाता नहींगया वक़्त फिर हाथ आता नहीं
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सहीहो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए
उठ कर तो आ गए हैं तिरी बज़्म से मगरकुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आए हैं
उफ़ वो मरमर से तराशा हुआ शफ़्फ़ाफ़ बदनदेखने वाले उसे ताज-महल कहते हैं
आह जो दिल से निकाली जाएगीक्या समझते हो कि ख़ाली जाएगी
आग का क्या है पल दो पल में लगती हैबुझते बुझते एक ज़माना लगता है
ग़ज़ब है वो ज़िद्दी बड़े हो गएमैं लेटा तो उठ के खड़े हो गए
'ज़फ़र' आदमी उस को न जानिएगा वो हो कैसा ही साहब-ए-फ़हम-ओ-ज़काजिसे ऐश में याद-ए-ख़ुदा न रही जिसे तैश में ख़ौफ़-ए-ख़ुदा न रहा
मैं ने माँगी थी उजाले की फ़क़त एक किरनतुम से ये किस ने कहा आग लगा दी जाए
क्या हो गया इसे कि तुझे देखती नहींजी चाहता है आग लगा दूँ नज़र को मैं
अजीब होते हैं आदाब-ए-रुख़स्त-ए-महफ़िलकि वो भी उठ के गया जिस का घर न था कोई
धुआँ जो कुछ घरों से उठ रहा हैन पूरे शहर पर छाए तो कहना
साथ बारिश में लिए फिरते हो उस को 'अंजुम'तुम ने इस शहर में क्या आग लगानी है कोई
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