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शेर
दिल-ए-वहशी को ख़्वाहिश है तुम्हारे दर पे आने की
दिवाना है व-लेकिन बात करता है ठिकाने की
जुरअत क़लंदर बख़्श
शेर
मुश्ताक़ हूँ तुझ लब की फ़साहत का व-लेकिन
'राँझा' के नसीबों में कहाँ 'हीर' की आवाज़
सिराज औरंगाबादी
शेर
ख़ुद-रफ़्तगी है चश्म-ए-हक़ीक़त जो वा हुई
दरवाज़ा खुल गया तो मैं घर से निकल गया
वज़ीर अली सबा लखनवी
शेर
ईद है हम ने भी जाना कि न होती गर ईद
मय-फ़रोश आज दर-ए-मय-कदा क्यूँ वा करता