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शेर
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
हस्ती का नज़ारा क्या कहिए मरता है कोई जीता है कोई
जैसे कि दिवाली हो कि दिया जलता जाए बुझता जाए
नुशूर वाहिदी
शेर
इस वास्ते फ़ुर्क़त में जीता मुझे रक्खा है
यानी मैं तिरी सूरत जब याद करूँ रोऊँ