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शेर
जो ये कहे कि रेख़्ता क्यूँके हो रश्क-ए-फ़ारसी
गुफ़्ता-ए-'ग़ालिब' एक बार पढ़ के उसे सुना कि यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
जा पड़े चुप हो के जब शहर-ए-ख़मोशाँ में 'नज़ीर'
ये ग़ज़ल ये रेख़्ता ये शेर-ख़्वानी फिर कहाँ
नज़ीर अकबराबादी
शेर
रेख़्ता-गोई की बुनियाद 'वली' ने डाली
ब'अद-अज़ाँ ख़ल्क़ को 'मिर्ज़ा' से है और 'मीर' से फ़ैज़
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
शिबली नोमानी
शेर
आँखें न चुरा 'मुसहफ़ी'-ए-रेख़्ता-गो से
इक उम्र से तेरा है सना-ख़्वान इधर देख
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
ऐ 'मुसहफ़ी' उस्ताद-ए-फ़न-ए-रेख़्ता-गोई
तुझ सा कोई आलम को मैं छाना नहीं मिलता
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
क्यूँ न आ कर उस के सुनने को करें सब यार भीड़
'आबरू' ये रेख़्ता तू नीं कहा है धूम का
आबरू शाह मुबारक
शेर
'मुसहफ़ी' गरचे ये सब कहते हैं हम से बेहतर
अपनी पर रेख़्ता-गोई की ज़बाँ और ही है