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शेर
क्यूँ उजाड़ा ज़ाहिदो बुत-ख़ाना-ए-आबाद को
मस्जिदें काफ़ी न होतीं क्या ख़ुदा की याद को
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
ख़ुदा देवे अगर क़ुदरत मुझे तो ज़िद है ज़ाहिद की
जहाँ तक मस्जिदें हैं मैं बनाऊँ तोड़ बुत-ख़ाना
ताबाँ अब्दुल हई
शेर
फ़स्ल-ए-गुल ही ज़ाहिदों को ग़म ही मय-कश शाद हैं
मस्जिदें सूनी पड़ी हैं भट्टियाँ आबाद हैं
वज़ीर अली सबा लखनवी
शेर
मस्जिद तो बना दी शब भर में ईमाँ की हरारत वालों ने
मन अपना पुराना पापी है बरसों में नमाज़ी बन न सका
अल्लामा इक़बाल
शेर
अमीर ख़ुसरो
शेर
अगर मौजें डुबो देतीं तो कुछ तस्कीन हो जाती
किनारों ने डुबोया है मुझे इस बात का ग़म है
दिवाकर राही
शेर
मस्जिद में उस ने हम को आँखें दिखा के मारा
काफ़िर की शोख़ी देखो घर में ख़ुदा के मारा