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शेर
मेले में गर नज़र न आता रूप किसी मतवाली का
फीका फीका रह जाता त्यौहार भी इस दीवाली का
मुमताज़ गुर्मानी
शेर
ग़म-ओ-कर्ब-ओ-अलम से दूर अपनी ज़िंदगी क्यूँ हो
यही जीने का सामाँ हैं तो फिर इन में कमी क्यूँ हो
मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी
शेर
उसी को हम समझ लेते हैं अपना सादगी देखो
जो अपने साथ राह-ए-शौक़ में दो गाम आता है
मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी
शेर
कहाँ रह जाए थक कर रह-नवर्द-ए-ग़म ख़ुदा जाने
हज़ारों मंज़िलें हैं मंज़िल-ए-आराम आने तक
मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी
शेर
जब से फ़रेब-ए-ज़ीस्त में आने लगा हूँ मैं
ख़ुद अपनी मुश्किलों को बढ़ाने लगा हूँ मैं
मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी
शेर
जिस ने जी भर के तजल्ली को कभी देखा हो
कोई ऐसा भी तिरी जल्वा-गह-ए-नाज़ में है
मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी
शेर
गुबार-ए-ज़िंदगी में लैला-ए-मक़्सूद क्या मअ'नी
वो दीवाने हैं जो इस गर्द को महमिल समझते हैं
मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी
शेर
तलाश-ए-सूरत-ए-तस्कीं न कर औहाम-हस्ती में
दिल-ए-महज़ूँ बहल सकता नहीं इस नक़्श-ए-बातिल से