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शेर
गुज़रने को तो गुज़रे जा रहे हैं राह-ए-हस्ती से
मगर है कारवाँ अपना न मीर-ए-कारवाँ अपना
सेहर इश्क़ाबादी
शेर
तबाही तक तो आ पहुँचे ब-फ़ैज़-ए-मग़्फ़िरत वाइ'ज़
ख़ुदारा अब तो मीर-ए-कारवाँ का ज़िक्र करने दो
सय्यद अंजुमन जाफ़री
शेर
था किसी गुम-कर्दा-ए-मंज़िल का नक़्श-ए-बे-सबात
जिस को मीर-ए-कारवाँ का नक़्श-ए-पा समझा था में
अब्दुल रहमान बज़्मी
शेर
वही कारवाँ वही रास्ते वही ज़िंदगी वही मरहले
मगर अपने अपने मक़ाम पर कभी तुम नहीं कभी हम नहीं
शकील बदायूनी
शेर
मैं था जब कारवाँ के साथ तो गुलज़ार थी दुनिया
मगर तन्हा हुआ तो हर तरफ़ सहरा ही सहरा था
मनीश शुक्ला
शेर
लुटा ये कारवाँ कब का न जाने कौन थी मंज़िल
मगर अहबाब अब भी ज़ो'म-ए-चुग़्ताई में जीते हैं