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शेर
क्या अजब कार-ए-तहय्युर है सुपुर्द-ए-नार-ए-इश्क़
घर में जो था बच गया और जो नहीं था जल गया
सलीम कौसर
शेर
सुन तो लिया किसी नार की ख़ातिर काटा कोह निकाली नहर
एक ज़रा से क़िस्से को अब देते क्यूँ हो तूल मियाँ
इब्न-ए-इंशा
शेर
जा के अब नार-ए-जहन्नम की ख़बर ले ज़ाहिद
नद्दियाँ बह गईं अश्कों की गुनहगारों में
मुज़्तर ख़ैराबादी
शेर
हर्फ़-ए-इंकार है क्यूँ नार-ए-जहन्नम का हलीफ़
सिर्फ़ इक़रार पे क्यूँ बाब-ए-इरम खुलता है