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शेर
मुसव्विर सब्ज़वारी
शेर
पत्तों को छोड़ देता है अक्सर ख़िज़ाँ के वक़्त
ख़ुद-ग़र्ज़ी ही कुछ ऐसी यहाँ हर शजर में है
अतुल अजनबी
शेर
अभी बाक़ी हैं पत्तों पर जले तिनकों की तहरीरें
ये वो तारीख़ है बिजली गिरी थी जब गुलिस्ताँ पर
क़मर जलालवी
शेर
निगाहें कामिलों पर पड़ ही जाती हैं ज़माने की
कहीं छुपता है 'अकबर' फूल पत्तों में निहाँ हो कर
अकबर इलाहाबादी
शेर
शोर करता फिर रहा हूँ ख़ुश्क पत्तों की तरह
कोई तो पूछे कि शहर-ए-बे-ख़बर में कौन है