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शेर
ख़त बढ़ा काकुल बढ़े ज़ुल्फ़ें बढ़ीं गेसू बढ़े
हुस्न की सरकार में जितने बढ़े हिन्दू बढ़े
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
शेर
मुसलमाँ था मगर तेरी अदा-ए-फ़ित्ना-परवर ने
दिखा कर काकुल-ए-पेचाँ मुझे काफ़िर बना डाला
मुज़फ्फ़र अहमद मुज़फ्फ़र
शेर
मुज़्तर ख़ैराबादी
शेर
याद है अब तक तुझ से बिछड़ने की वो अँधेरी शाम मुझे
तू ख़ामोश खड़ा था लेकिन बातें करता था काजल
नासिर काज़मी
शेर
अलग बैठे थे फिर भी आँख साक़ी की पड़ी हम पर
अगर है तिश्नगी कामिल तो पैमाने भी आएँगे